हम-अस्रों में ये छेड़ चली आई है 'अज़हर'
याँ 'ज़ौक़' ने 'ग़ालिब' को भी ग़ालिब नहीं समझा
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वो जिस के सेहन में कोई गुलाब खिल न सका
जब तक सफ़ेद आँधी के झोंके चले न थे
नक़्श मिटते हैं तो आता है ख़याल
आज भी शाम-ए-ग़म! उदास न हो
किताबें जब कोई पढ़ता नहीं था
मयस्सर हो जो लम्हा देखने को
इस हादसे को देख के आँखों में दर्द है
वो मुझ से मेरा तआ'रुफ़ कराने आया था
क्या क्या नवाह-ए-चश्म की रानाइयाँ गईं
जवानों में तसादुम कैसे रुकता
हम ने जो क़सीदों को मुनासिब नहीं समझा
कभी क़रीब कभी दूर हो के रोते हैं