आज भी शाम-ए-ग़म! उदास न हो
माँग कर मैं चराग़ लाता हूँ
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जब तक सफ़ेद आँधी के झोंके चले न थे
जवानों में तसादुम कैसे रुकता
पलट चलें कि ग़लत आ गए हमीं शायद
ये और बात कि आँधी हमारे बस में नहीं
ये मस्ख़रों को वज़ीफ़े यूँही नहीं मिलते
ग़मों से यूँ वो फ़रार इख़्तियार करता था
सँभल के चलने का सारा ग़ुरूर टूट गया
ये अलग बात कि मैं नूह नहीं था लेकिन
घर से किस तरह मैं निकलूँ कि ये मद्धम सा चराग़
तारीख़ भी हूँ उतने बरस की मोअर्रिख़ो
मेरी ख़ामोशी पे थे जो तअना-ज़न
आज शहरों में हैं जितने ख़तरे