आज शहरों में हैं जितने ख़तरे
जंगलों में भी कहाँ थे पहले
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Habib Jalib
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Mir Taqi Mir
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Gulzar
Parveen Shakir
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जवान हो गई इक नस्ल सुनते सुनते ग़ज़ल
किसी के ऐब छुपाना सवाब है लेकिन
उदास उदास तबीअ'त जो थी बहलने लगी
क्या क्या नवाह-ए-चश्म की रानाइयाँ गईं
अज़िय्यत उस की ज़ेहनी दूर कर दे
इस रास्ते में जब कोई साया न पाएगा
पुराने अहद में भी दुश्मनी थी
मयस्सर हो जो लम्हा देखने को
रंगतें मासूम चेहरों की बुझा दी जाएँगी
ये अलग बात कि मैं नूह नहीं था लेकिन
वो ताज़ा-दम हैं नए शो'बदे दिखाते हुए
जहाँ ज़िदें किया करता था बचपना मेरा