जवान हो गई इक नस्ल सुनते सुनते ग़ज़ल
हम और हो गए बूढ़े ग़ज़ल सुनाते हुए
Javed Akhtar
Wasi Shah
Habib Jalib
Allama Iqbal
Parveen Shakir
Jaun Eliya
Faiz Ahmad Faiz
Mohsin Naqvi
Mir Taqi Mir
Ahmad Faraz
Rahat Indori
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क्या क्या नवाह-ए-चश्म की रानाइयाँ गईं
क्या रह गया है शहर में खंडरात के सिवा
कुछ आरज़ी उजाले बचाए हुए हैं लोग
फ़िक्र में हैं हमें बुझाने की
कभी क़रीब कभी दूर हो के रोते हैं
नज़र की ज़द में सर कोई नहीं है
इस कार-ए-आगही को जुनूँ कह रहे हैं लोग
हुआ उजाला तो हम उन के नाम भूल गए
आज भी शाम-ए-ग़म! उदास न हो
वो ताज़ा-दम हैं नए शो'बदे दिखाते हुए
घर का रस्ता जो भूल जाता हूँ