ये और बात कि आँधी हमारे बस में नहीं
मगर चराग़ जलाना तो इख़्तियार में है
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हम-अस्रों में ये छेड़ चली आई है 'अज़हर'
नज़र की ज़द में सर कोई नहीं है
घर का रस्ता जो भूल जाता हूँ
मुझ को भी जागने की अज़िय्यत से दे नजात
उजाला दश्त-ए-जुनूँ में बढ़ाना पड़ता है
तिरे तक़ाज़ों पे चेहरे बदल रहा हूँ मैं
उन के भी अपने ख़्वाब थे अपनी ज़रूरतें
इस हादसे को देख के आँखों में दर्द है
वो मेरा यार था मुझ को न ये ख़याल आया
ग़मों से यूँ वो फ़रार इख़्तियार करता था
कभी क़रीब कभी दूर हो के रोते हैं
अपनी तस्वीर बनाओगे तो होगा एहसास