अपनी तस्वीर बनाओगे तो होगा एहसास
कितना दुश्वार है ख़ुद को कोई चेहरा देना
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पुराने अहद में भी दुश्मनी थी
जवान हो गई इक नस्ल सुनते सुनते ग़ज़ल
ख़ुद-कुशी के लिए थोड़ा सा ये काफ़ी है मगर
कभी क़रीब कभी दूर हो के रोते हैं
फ़िक्र में हैं हमें बुझाने की
नज़र की ज़द में सर कोई नहीं है
इस बुलंदी पे कहाँ थे पहले
इस रास्ते में जब कोई साया न पाएगा
जहाँ ज़िदें किया करता था बचपना मेरा
बनाए ज़ेहन परिंदों की ये क़तार मिरा
ग़मों से यूँ वो फ़रार इख़्तियार करता था
मैं जिसे ढूँडने निकला था उसे पा न सका