अजब जुनून है ये इंतिक़ाम का जज़्बा
शिकस्त खा के वो पानी में ज़हर डाल आया
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ये और बात कि आँधी हमारे बस में नहीं
हर एक रात को महताब देखने के लिए
ये भी रहा है कूचा-ए-जानाँ में अपना रंग
वो जिस के सेहन में कोई गुलाब खिल न सका
कभी क़रीब कभी दूर हो के रोते हैं
हम ने जो क़सीदों को मुनासिब नहीं समझा
मुझ को भी जागने की अज़िय्यत से दे नजात
क्या रह गया है शहर में खंडरात के सिवा
अपने आँचल में छुपा कर मिरे आँसू ले जा
ख़त उस के अपने हाथ का आता नहीं कोई
जब तक सफ़ेद आँधी के झोंके चले न थे
उस को आदाब बिछड़ने के सिखाता हुआ मैं