ये भी रहा है कूचा-ए-जानाँ में अपना रंग
आहट हुई तो चाँद दरीचे में आ गया
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अभी बिछड़ा है वो कुछ रोज़ तो याद आएगा
मैं जिसे ढूँडने निकला था उसे पा न सका
इस बुलंदी पे कहाँ थे पहले
आज शहरों में हैं जितने ख़तरे
सँभल के चलने का सारा ग़ुरूर टूट गया
घर का रस्ता जो भूल जाता हूँ
अपने आँचल में छुपा कर मिरे आँसू ले जा
फ़न उड़ानों का जब ईजाद किया था मैं ने
ग़मों से यूँ वो फ़रार इख़्तियार करता था
जहाँ ज़िदें किया करता था बचपना मेरा
कभी क़रीब कभी दूर हो के रोते हैं
घर तो हमारा शो'लों के नर्ग़े में आ गया