ख़ुद-कुशी के लिए थोड़ा सा ये काफ़ी है मगर
ज़िंदा रहने को बहुत ज़हर पिया जाता है
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पुराने अहद में भी दुश्मनी थी
वो ताज़ा-दम हैं नए शो'बदे दिखाते हुए
क्या क्या नवाह-ए-चश्म की रानाइयाँ गईं
चौराहों का तो हुस्न बढ़ा शहर के मगर
फ़िक्र में हैं हमें बुझाने की
फ़न उड़ानों का जब ईजाद किया था मैं ने
ख़त उस के अपने हाथ का आता नहीं कोई
ग़मों से यूँ वो फ़रार इख़्तियार करता था
उजाला दश्त-ए-जुनूँ में बढ़ाना पड़ता है
रंगतें मासूम चेहरों की बुझा दी जाएँगी
वो मुझ से मेरा तआ'रुफ़ कराने आया था
जवान हो गई इक नस्ल सुनते सुनते ग़ज़ल