मोअर्रिख़ लिख न दें सुक़रात मुझ को
मैं लस्सी का पियाला पी रहा हूँ
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थका हारा निकल कर घर से अपने
कूदे हैं उस के सेहन में दो-चार शेर-दिल
उमीद
वो साड़ी ज्यूलरी के तहाइफ़ पे थी ब-ज़िद
कितनी मज़ाहिया है ये बोतल के जिन की बात
मैं एक बोरी में लाया हूँ भर के मूँग-फली
ऐसी ख़्वाहिश को समझता हूँ मैं बिल्कुल नेचुरल
केबल पे एक शेल्फ़ से जल्दी में सीख कर
न ये क़ानून काम आया था राँझे के ज़रा सा भी
मैं ने सुनाया उस को जो उर्दू में हाल-ए-दिल
इश्क़ में ये तफ़रक़ा-बाज़ी बहुत मायूब है