वो साड़ी ज्यूलरी के तहाइफ़ पे थी ब-ज़िद
हम सौ रूपे की शाल से आगे नहीं गए
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ऐसे बंदों को जानता हूँ मैं
मैं एक बोरी में लाया हूँ भर के मूँग-फली
कितनी मज़ाहिया है ये बोतल के जिन की बात
इश्क़ में ये तफ़रक़ा-बाज़ी बहुत मायूब है
वो हसब-ए-शहर कर लेता है मस्लक में भी तब्दीली
वो अफ़तारी से पहले चखते चखते
केबल पे एक शेल्फ़ से जल्दी में सीख कर
दे रहे हैं इस लिए जंगल में धरना जानवर
दो ख़त ब-नाम-ए-ज़ौजा-ओ-जानाँ लिखे मगर
मैं ने सुनाया उस को जो उर्दू में हाल-ए-दिल
थका हारा निकल कर घर से अपने