कूदे हैं उस के सेहन में दो-चार शेर-दिल
हम फेसबुक की वाल से आगे नहीं गए
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कितनी मज़ाहिया है ये बोतल के जिन की बात
इश्क़ में ये तफ़रक़ा-बाज़ी बहुत मायूब है
थका हारा निकल कर घर से अपने
उमीद
दो ख़त ब-नाम-ए-ज़ौजा-ओ-जानाँ लिखे मगर
वो साड़ी ज्यूलरी के तहाइफ़ पे थी ब-ज़िद
ऐसे बंदों को जानता हूँ मैं
कुछ इस लिए भी उसे टूट कर नहीं चाहा
मैं एक बोरी में लाया हूँ भर के मूँग-फली
दस बारा ग़ज़लियात जो रखता है जेब में
मोअर्रिख़ लिख न दें सुक़रात मुझ को
है कामयाबी-ए-मर्दां में हाथ औरत का