दस बारा ग़ज़लियात जो रखता है जेब में
बज़्म-ए-सुख़न में है वो निशानी वबाल की
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है कामयाबी-ए-मर्दां में हाथ औरत का
न ये क़ानून काम आया था राँझे के ज़रा सा भी
उमीद
वो तीस साल से है फ़क़त बीस साल की
मैं ने सुनाया उस को जो उर्दू में हाल-ए-दिल
कूदे हैं उस के सेहन में दो-चार शेर-दिल
इश्क़ में ये तफ़रक़ा-बाज़ी बहुत मायूब है
दो ख़त ब-नाम-ए-ज़ौजा-ओ-जानाँ लिखे मगर
थका हारा निकल कर घर से अपने
मोअर्रिख़ लिख न दें सुक़रात मुझ को
ऐसे बंदों को जानता हूँ मैं
ऐसी ख़्वाहिश को समझता हूँ मैं बिल्कुल नेचुरल