ख़ूँ हुआ दिल कि पशीमान-ए-सदाक़त है वफ़ा
ख़ुश हुआ जी कि चलो आज तुम्हारे हुए लोग
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ताज़ा हवा बहार की दिल का मलाल ले गई
गहरे सुर्ख़ गुलाब का अंधा बुलबुल साँप को क्या देखेगा
नावक-ए-ताज़ा दिल पर मारा जंग पुरानी जारी की
हज़ार वक़्त के परतव-नज़र में होते हैं
ख़त्म हुई शब-ए-वफ़ा ख़्वाब के सिलसिले गए
न फ़ासले कोई निकले न क़ुर्बतें निकलीं
मिरी आँखें गवाह-ए-तल'अत-ए-आतिश हुईं जल कर
दिलों की उक़्दा-कुशाई का वक़्त है कि नहीं
इक ख़्वाब-ए-आतिशीं का वो महरम सा रह गया
एक तरफ़ रू-ए-जानाँ था जलती आँख में एक तरफ़
वफ़ा की रात कोई इत्तिफ़ाक़ थी लेकिन
हुस्न की शर्त-ए-वफ़ा जो ठहरी तेशा ओ संग-ए-गिराँ की बात