गर्मी-ए-शिद्दत-ए-जज़्बात बता देता है
दिल तो भूली हुई हर बात बता देता है
Parveen Shakir
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कैसा लम्हा आन पड़ा है
लोग चले हैं सहराओं को
कम कम रहना ग़म के सुर्ख़ जज़ीरों में
सिर्फ़ मौसम के बदलने ही पे मौक़ूफ़ नहीं
क्या पूछते हो मैं कैसा हूँ
वा'दे झूटे क़स्में झूटी
हर कूचे में अरमानों का ख़ून हुआ
नए समय की कोयल
जिस्म अपने फ़ानी हैं जान अपनी फ़ानी है फ़ानी है ये दुनिया भी
माँ
ज़िंदगी से ज़िंदगी रूठी रही