ज़िंदगी से ज़िंदगी रूठी रही
आदमी से आदमी बरहम रहा
Mir Taqi Mir
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Parveen Shakir
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Wasi Shah
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माँ
हम ने जिन को सच्चा जाना
जाने क्या सोच के घर तक पहुँचा
जिस्म अपने फ़ानी हैं जान अपनी फ़ानी है फ़ानी है ये दुनिया भी
सब्र-ओ-ज़ब्त की जानाँ दास्ताँ तो मैं भी हूँ दास्ताँ तो तुम भी हो
एक उलझन रात दिन पलती रही दिल में कि हम
वा'दे झूटे क़स्में झूटी
लोग चले हैं सहराओं को
सिर्फ़ मौसम के बदलने ही पे मौक़ूफ़ नहीं
मैं किनारे पे खड़ा हूँ तो कोई बात नहीं
संदेसा