शाम ढलते ही ये आलम है तो क्या जाने बशीर
हाल अपना सुब्ह तक बे-रब्त नब्ज़ें क्या करें
Rahat Indori
Mir Taqi Mir
Habib Jalib
Jaun Eliya
Gulzar
Wasi Shah
Allama Iqbal
Anwar Masood
Ahmad Faraz
Javed Akhtar
Mohsin Naqvi
Faiz Ahmad Faiz
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(1087) Peoples Rate This
दूर तक चारों तरफ़ मेरे सिवा कोई न था
जी नहीं लगता किताबों में किताबें क्या करें
गिरफ़्त-ए-ज़ीस्त में हूँ क़ैद-ए-बे-हिसार में हूँ
जुदा भी हो के वो इक पल कभी जुदा न हुआ
ऐसा तह-ए-अफ़्लाक ख़राबा नहीं कोई
इक बे-सबात अक्स बना बे-निशाँ गया
इन चटख़्ते पत्थरों पर पाँव धरना ध्यान से
या मह-ओ-साल की दीवार गिरा दी जाए
कैसी कैसी थीं उन्ही गलियों में ज़ेबा सूरतें
क़र्या क़र्या ख़ाक उड़ाई कूचा-गर्द फ़क़ीर हुए
हर गाम पे आवारगी-ओ-दर-ब-दरी में