दूर तक चारों तरफ़ मेरे सिवा कोई न था

दूर तक चारों तरफ़ मेरे सिवा कोई न था

फिर पलक झपकी तो क्या देखा कि ख़ुद मैं भी न था

इक तड़प बिजली की और दीवार-ओ-दर मिट्टी के ढेर

इक तड़प शो'ले की और दरियाओं में पानी न था

दाएरे बनती सदाएँ छू के जब हद्द-ए-उफ़ुक़

अपने मरकज़ की तरफ़ लौटीं तो कुछ बाक़ी न था

क़ैद-ए-ज़़िंदान-ए-जसद में था ये कब कश्फ़-ए-वजूद

और भी कुछ था मैं सिर्फ़ इक पैकर-ए-ख़ाकी न था

क्या ख़बर तुम ने कहाँ किस रूप में देखा मुझे

मैं कहीं मोती कहीं पत्थर कहीं आईना था

दें हिसाब-ए-रोज़-ओ-शब क्या उस को जिस के दर्द से

कोई साअत कोई लम्हा कोई पल ख़ाली न था

आरज़ू लाल-ओ-गुहर की किस लिए करता 'बशीर'

हर्फ़-ओ-मा'नी का ख़ज़ीना क्या उसे काफ़ी न था

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