शाम भी है सुब्ह भी है और दिन भी रात भी
माह-ए-ताबाँ अब भी है महर-ए-दरख़्शाँ अब भी है
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ये छेड़ क्या है ये क्या मुझ से दिल-लगी है कोई
रिहाई जीते जी मुमकिन नहीं है
वो अपने मतलब की कह रहे हैं ज़बान पर गो है बात मेरी
जब मिलेंगे कि अब मिलेंगे आप
कभी दर पर कभी है रस्ते में
पूछते हैं वो इश्क़ का मतलब
बंधन सा इक बँधा था रग-ओ-पय से जिस्म में
चराग़ उस ने बुझा भी दिया जला भी दिया
मिरा दिल भी तिलिस्मी है ख़ज़ाना
है दुनिया में ज़बाँ मेरी अगर बंद
ज़ोर से साँस जो लेता हूँ तो अक्सर शब-ए-ग़म
लड़ ही जाए किसी निगार से आँख