अब आदमी कुछ और हमारी नज़र में है
जब से सुना है यार लिबास-ए-बशर में है
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उस को दुनिया और न उक़्बा चाहिए
दारू-ए-दर्द-ए-निहाँ राहत-ए-जानी सनमा
मुबारक साक़ी-ए-मस्ताँ मुबारक
सब ने ग़ुर्बत में मुझ को छोड़ दिया
पर्दे उठे हुए भी हैं उन की इधर नज़र भी है
तौर मजनूँ की निगाहों के बताते हैं हमें
काबे का शौक़ है न सनम-ख़ाना चाहिए
बरहमन मुझ को बनाना न मुसलमाँ करना
तेरी उल्फ़त शोबदा-पर्वाज़ है
यूँ गुलशन-ए-हस्ती की माली ने बिना डाली
बेदम ये मोहब्बत है या कोई मुसीबत है
कुछ लगी दिल की बुझा लूँ तो चले जाइएगा