अपना तो ये मज़हब है काबा हो कि बुत-ख़ाना
जिस जा तुम्हें देखेंगे हम सर को झुका देंगे
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पास-ए-अदब मुझे उन्हें शर्म-ओ-हया न हो
मैं यार का जल्वा हूँ
कभी यहाँ लिए हुए कभी वहाँ लिए हुए
कौन सा घर है कि ऐ जाँ नहीं काशाना तिरा और जल्वा-ख़ाना तिरा
तुम ख़फ़ा हो तो अच्छा ख़फ़ा हो
सहारा मौजों का ले ले के बढ़ रहा हूँ मैं
दिल लिया जान ली नहीं जाती
काबे का शौक़ है न सनम-ख़ाना चाहिए
हलाक-ए-तेग़-ए-जफ़ा या शहीद-ए-नाज़ करे
अब आदमी कुछ और हमारी नज़र में है
बताए देती है बे-पूछे राज़ सब दिल के
काश मिरी जबीन-ए-शौक़ सज्दों से सरफ़राज़ हो