ऐ दिल की ख़लिश चल यूँही सही चलता तो हूँ उन की महफ़िल में
उस वक़्त मुझे चौंका देना जब रंग पे महफ़िल आ जाए
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आता है जो तूफ़ाँ आने दे कश्ती का ख़ुदा ख़ुद हाफ़िज़ है
दिल मेरा तेरा ताब-ए-फ़रमाँ है क्या करूँ
होना ही क्या ज़रूर थे ये दो-जहाँ हैं क्यूँ
फ़रियाद है अब लब पर जब अश्क-फ़िशानी थी
ऐ दिल की ख़लिश गर यूँही सही चलता तो हूँ उन की महफ़िल में
तुम्हारे हुस्न की तस्ख़ीर आम होती है
चश्म-ए-हसीं में है न रुख़-ए-फ़ित्ना-गर में है
तिरे इश्क़ में ज़िंदगानी लुटा दी
ज़िंदा हूँ इस तरह कि ग़म-ए-ज़िंदगी नहीं
इश्क़ का एजाज़ सज्दों में निहाँ रखता हूँ मैं
मुझे तो होश न था उन की बज़्म में लेकिन
उन को बुत समझा था या उन को ख़ुदा समझा था मैं