मुझ को न दिल पसंद न वो बेवफ़ा पसंद
दोनों हैं ख़ुद-ग़रज़ मुझे दोनों हैं ना-पसंद
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जो तुझे इम्तिहान देता है
अपने जल्वे का वो ख़ुद आप तमाशाई है
बात करने की शब-ए-वस्ल इजाज़त दे दो
बनी थी दिल पे कुछ ऐसी की इज़्तिराब न था
जो तमाशा नज़र आया उसे देखा समझा
नामा-बर ये तो कही बात पते की तू ने
आ गए फिर तिरे अरमान मिटाने हम को
ऐसा बना दिया तुझे क़ुदरत ख़ुदा की है
न देखे होंगे रिंद-ए-ला-उबाली तुम ने 'बेख़ुद' से
हमें पीने से मतलब है जगह की क़ैद क्या 'बेख़ुद'
मुँह फेर कर वो कहते हैं बस मान जाइए
अब इस से क्या तुम्हें था या उमीद-वार न था