राह में बैठा हूँ मैं तुम संग-ए-रह समझो मुझे
आदमी बन जाऊँगा कुछ ठोकरें खाने के बाद
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नौ-गिरफ़्तार-ए-मोहब्बत हूँ वफ़ा मुझ में कहाँ
दी क़सम वस्ल में उस बुत को ख़ुदा की तो कहा
कुछ तरह रिंदों ने दी कुछ मोहतसिब भी दब गया
ऐसा बना दिया तुझे क़ुदरत ख़ुदा की है
उठे तिरी महफ़िल से तो किस काम के उठ्ठे
लुत्फ़ से मतलब न कुछ मेरे सताने से ग़रज़
न देखना कभी आईना भूल कर देखो
ज़ाहिदों से न बनी हश्र के दिन भी या-रब
आइना देख कर वो ये समझे
मेरे हम-राह मिरे घर पे भी आफ़त आई
जादू है या तिलिस्म तुम्हारी ज़बान में
मोहब्बत और मजनूँ हम तो सौदा इस को कहते हैं