ज़माना हम ने ज़ालिम छान मारा
नहीं मिलतीं तिरे मिलने की राहें
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तीर-ए-क़ातिल को कलेजे से लगा रक्खा है
सुन के सारी दास्तान-ए-रंज-ओ-ग़म
न अरमाँ बन के आते हैं न हसरत बन के आते हैं
अदू को देख के जब वो इधर को देखते हैं
नमक भर कर मिरे ज़ख़्मों में तुम क्या मुस्कुराते हो
बेवफ़ा कहने से क्या वो बेवफ़ा हो जाएगा
नौ-गिरफ़्तार-ए-मोहब्बत हूँ वफ़ा मुझ में कहाँ
दिल तो लेते हो मगर ये भी रहे याद तुम्हें
आशिक़ हैं मगर इश्क़ नुमायाँ नहीं रखते
अब इस से क्या तुम्हें था या उमीद-वार न था
सख़्त-जाँ हूँ मुझे इक वार से क्या होता है
जादू है या तिलिस्म तुम्हारी ज़बान में