सख़्त-जाँ हूँ मुझे इक वार से क्या होता है
ऐसी चोटें कोई दो-चार तो आने दीजे
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तुम्हें हम चाहते तो हैं मगर क्या
रिंद-मशरब कोई 'बेख़ुद' सा न होगा वल्लाह
शौक़ अपना आप मैं अपनी ज़बाँ से क्यूँ कहूँ
न सही आप हमारे जो मुक़द्दर में नहीं
भूले से कहा मान भी लेते हैं किसी का
हुआ जो वक़्फ़-ए-ग़म वो दिल किसी का हो नहीं सकता
आप हों हम हों मय-ए-नाब हो तन्हाई हो
हमें इस्लाम उसे इतना तअल्लुक़ है अभी बाक़ी
वफ़ा का नाम तो पीछे लिया है
ग़म में डूबे ही रहे दम न हमारा निकला
शम-ए-मज़ार थी न कोई सोगवार था
राह में बैठा हूँ मैं तुम संग-ए-रह समझो मुझे