दर बदर की ख़ाक थी तक़दीर में
हम लिए काँधों पे घर चलते रहे
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कोई आहट कोई सरगोशी सदा कुछ भी नहीं
यूँ चुप रहा करे से तो हो जाए है जुनूँ
देता था जो साया वो शजर काट रहा है
है यूँ कि कुछ तो बग़ावत-सिरिश्त हम भी हैं
हम तो बेगाने से ख़ुद को भी मिले हैं 'बिल्क़ीस'
अनहोनी कुछ ज़रूर हुई दिल के साथ आज
नहीं है ख़्वाब दीवाने का हस्ती
अपनी तो कोई बात बनाए नहीं बनी
शाम से हम ता सहर चलते रहे
ख़ुद पे ये ज़ुल्म गवारा नहीं होगा हम से
कब इक मक़ाम पे रुकती है सर-फिरी है हवा