नहीं है ख़्वाब दीवाने का हस्ती
ये दुनिया सिर्फ़ इक धोका नहीं है
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ख़ुद अपनी फ़िक्र उगाती है वहम के काँटे
शाम से हम ता सहर चलते रहे
ख़ुद पे ये ज़ुल्म गवारा नहीं होगा हम से
पाबंदियों से अपनी निकलते वो पा न थे
अपनी तो कोई बात बनाए नहीं बनी
नज़र आता है वो जैसा नहीं है
ज़ख़्म को फूल कहें नौहे को नग़्मा समझें
तेरी तो 'बिल्क़ीस' निराली ही बातें हैं
तमाम लाला ओ गुल के चराग़ रौशन हैं
दीवार-ओ-दर में सिमटा इक लम्स काँपता है
है यूँ कि कुछ तो बग़ावत-सिरिश्त हम भी हैं