तमाम लाला ओ गुल के चराग़ रौशन हैं
शजर शजर पे शगूफ़ों में जल रही है हवा
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कितने सादा हैं हम कि बैठे हैं
उठ कर चले गए तो कभी फिर न आएँगे
बदन पे ज़ख़्म सजाए लहू लबादा किया
ख़ुद अपनी फ़िक्र उगाती है वहम के काँटे
जिन में खो कर हम ख़ुद को भी भूल गए हैं
मेरी तरह टूटे आईने में उस ने भी
मिरी हथेली में लिक्खा हुआ दिखाई दे
हर-दिल-अज़ीज़ वो भी है हम भी हैं ख़ुश-मिज़ाज
अपनी तो कोई बात बनाए नहीं बनी
अनहोनी कुछ ज़रूर हुई दिल के साथ आज
कब एक रंग में दुनिया का हाल ठहरा है
जाने क्या कुछ है आज होने को