ख़ुद अपनी फ़िक्र उगाती है वहम के काँटे
उलझ उलझ के मिरा हर सवाल ठहरा है
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ख़ुद पे ये ज़ुल्म गवारा नहीं होगा हम से
जाने क्या कुछ है आज होने को
मेरी तरह टूटे आईने में उस ने भी
नज़र आता है वो जैसा नहीं है
एक आलम है ये हैरानी का जीना कैसा
ज़ख़्म को फूल कहें नौहे को नग़्मा समझें
उठ कर चले गए तो कभी फिर न आएँगे
कब एक रंग में दुनिया का हाल ठहरा है
देता था जो साया वो शजर काट रहा है
नहीं है ख़्वाब दीवाने का हस्ती