कितने सादा हैं हम कि बैठे हैं
दाग़-ए-दिल आँसुओं से धोने को
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तेरी तो 'बिल्क़ीस' निराली ही बातें हैं
उठ कर चले गए तो कभी फिर न आएँगे
जाने क्या कुछ है आज होने को
है यूँ कि कुछ तो बग़ावत-सिरिश्त हम भी हैं
जीना है ख़ूब औरों की ख़ातिर जिया करो
अनहोनी कुछ ज़रूर हुई दिल के साथ आज
बदन पे ज़ख़्म सजाए लहू लबादा किया
देता था जो साया वो शजर काट रहा है
जिन में खो कर हम ख़ुद को भी भूल गए हैं
तमाम लाला ओ गुल के चराग़ रौशन हैं
नज़र आता है वो जैसा नहीं है
हमारी जागती आँखों में ख़्वाब सा क्या था