मिलन के ब'अद आती है जुदाई
नरक भी स्वर्ग से कितना निकट है
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तुम्हारी याद से ये रात कितनी रौशन है
वाक़िफ़ कहाँ ज़माना हमारी उड़ान से
कितने तूफ़ानों से हम उलझे तुझे मालूम क्या
जाएँगे एक रोज़ समुंदर की गोद में
तेरी यादें हो गईं जैसे मुक़द्दस आयतें
बंद कमरे में तिरा दर्द न बुझ जाए कहीं
मरघट पथ पर देख के हम को जाने क्या क्या सोचें वो
हम अहल-ए-ग़म को हक़ारत से देखने वालो
दोस्ती में न दुश्मनी में हम
शाम ख़ामोश है पेड़ों पे उजाला कम है
किसी के दर पे सज्दा करते करते