किसी के दर पे सज्दा करते करते
'फहीम' ऐसा न हो सर टूट जाए
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न बात दिल की सुनूँ मैं न दिल सुने मेरी
हम अहल-ए-ग़म को हक़ारत से देखने वालो
तेरी यादें हो गईं जैसे मुक़द्दस आयतें
मरघट पथ पर देख के हम को जाने क्या क्या सोचें वो
शाम ख़ामोश है पेड़ों पे उजाला कम है
रस्ते में 'फहीम' उस की तबीअत का बिगड़ना
दोस्ती में न दुश्मनी में हम
मिलन के ब'अद आती है जुदाई
तुम्हारी याद से ये रात कितनी रौशन है
बंद कमरे में तिरा दर्द न बुझ जाए कहीं