मरघट पथ पर देख के हम को जाने क्या क्या सोचें वो
आँखों से क्या पुन्य कमाए होंटों से क्या दान हुए
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तुम्हारी याद से ये रात कितनी रौशन है
मिलन के ब'अद आती है जुदाई
हम अहल-ए-ग़म को हक़ारत से देखने वालो
न बात दिल की सुनूँ मैं न दिल सुने मेरी
दोस्ती में न दुश्मनी में हम
जाएँगे एक रोज़ समुंदर की गोद में
वाक़िफ़ कहाँ ज़माना हमारी उड़ान से
किसी के दर पे सज्दा करते करते
शाम ख़ामोश है पेड़ों पे उजाला कम है
बंद कमरे में तिरा दर्द न बुझ जाए कहीं