बंद कमरे में तिरा दर्द न बुझ जाए कहीं
खिड़कियाँ खोल कि ये आग हवा चाहती है
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तुम्हारी याद से ये रात कितनी रौशन है
तेरी यादें हो गईं जैसे मुक़द्दस आयतें
शाम ख़ामोश है पेड़ों पे उजाला कम है
न बात दिल की सुनूँ मैं न दिल सुने मेरी
वाक़िफ़ कहाँ ज़माना हमारी उड़ान से
मरघट पथ पर देख के हम को जाने क्या क्या सोचें वो
किसी के दर पे सज्दा करते करते
मिलन के ब'अद आती है जुदाई
जाएँगे एक रोज़ समुंदर की गोद में
हम अहल-ए-ग़म को हक़ारत से देखने वालो