वाक़िफ़ कहाँ ज़माना हमारी उड़ान से
वो और थे जो हार गए आसमान से
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मिलन के ब'अद आती है जुदाई
शाम ख़ामोश है पेड़ों पे उजाला कम है
मरघट पथ पर देख के हम को जाने क्या क्या सोचें वो
कितने तूफ़ानों से हम उलझे तुझे मालूम क्या
न बात दिल की सुनूँ मैं न दिल सुने मेरी
रस्ते में 'फहीम' उस की तबीअत का बिगड़ना
जाएँगे एक रोज़ समुंदर की गोद में
हम अहल-ए-ग़म को हक़ारत से देखने वालो
तेरी यादें हो गईं जैसे मुक़द्दस आयतें
दोस्ती में न दुश्मनी में हम