रस्ते में 'फहीम' उस की तबीअत का बिगड़ना
घर जाने का इक और बहाना तो नहीं है
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हम अहल-ए-ग़म को हक़ारत से देखने वालो
मिलन के ब'अद आती है जुदाई
वाक़िफ़ कहाँ ज़माना हमारी उड़ान से
कितने तूफ़ानों से हम उलझे तुझे मालूम क्या
किसी के दर पे सज्दा करते करते
तेरी यादें हो गईं जैसे मुक़द्दस आयतें
बंद कमरे में तिरा दर्द न बुझ जाए कहीं
न बात दिल की सुनूँ मैं न दिल सुने मेरी
मरघट पथ पर देख के हम को जाने क्या क्या सोचें वो
शाम ख़ामोश है पेड़ों पे उजाला कम है
तुम्हारी याद से ये रात कितनी रौशन है