शाम ख़ामोश है पेड़ों पे उजाला कम है
लौट आए हैं सभी एक परिंदा कम है
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तेरी यादें हो गईं जैसे मुक़द्दस आयतें
हम अहल-ए-ग़म को हक़ारत से देखने वालो
दोस्ती में न दुश्मनी में हम
कितने तूफ़ानों से हम उलझे तुझे मालूम क्या
रस्ते में 'फहीम' उस की तबीअत का बिगड़ना
जाएँगे एक रोज़ समुंदर की गोद में
मिलन के ब'अद आती है जुदाई
तुम्हारी याद से ये रात कितनी रौशन है
न बात दिल की सुनूँ मैं न दिल सुने मेरी
किसी के दर पे सज्दा करते करते