ऐ बे-ख़ुदी ठहर कि बहुत दिन गुज़र गए
मुझ को ख़याल-ए-यार कहीं ढूँडता न हो
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दुनिया-ए-हुस्न-ओ-इश्क़ में किस का ज़ुहूर था
बहला न दिल न तीरगी-ए-शाम-ए-ग़म गई
उस को भूले तो हुए हो 'फ़ानी'
वो हूर को चाहा कि परी को चाहा
हर नफ़स उम्र-ए-गुज़िश्ता की है मय्यत 'फ़ानी'
ऐ मौत तुझ पे उम्र-ए-अबद का मदार है
मुस्कुराए वो हाल-ए-दिल सुन कर
दिल सरापा दर्द था वो इब्तिदा-ए-इश्क़ थी
ख़ुदा असर से बचाए इस आस्ताने को
माया-ए-नाज़-ए-राज़ हैं हम लोग
ख़ुद मसीहा ख़ुद ही क़ातिल हैं तो वो भी क्या करें
इक मुअम्मा है समझने का न समझाने का