अपनी ही निगाहों का ये नज़्ज़ारा कहाँ तक
इस मरहला-ए-सई-ए-तमाशा से गुज़र जा
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कश्ती-ए-ए'तिबार तोड़ के देख
रूह घबराई हुई फिरती है मेरी लाश पर
इश्क़ इश्क़ हो शायद हुस्न में फ़ना हो कर
वा-ए-नादानी ये हसरत थी कि होता दर खुला
हर साँस के साथ जा रहा हूँ
तर्क-ए-उम्मीद बस की बात नहीं
मुझ को मिरे नसीब ने रोज़-ए-अज़ल से क्या दिया
फिर किसी की याद ने तड़पा दिया
दिल सरापा दर्द था वो इब्तिदा-ए-इश्क़ थी
आँख उठाई ही थी कि खाई चोट
अदा से आड़ में ख़ंजर के मुँह छुपाए हुए
होते हैं राज़-ए-इश्क़-ओ-मोहब्बत इसी से फ़ाश