रूह घबराई हुई फिरती है मेरी लाश पर
क्या जनाज़े पर मेरे ख़त का जवाब आने को है
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हासिल-ए-इल्म-ए-बशर जहल का इरफ़ाँ होना
ऐ बे-ख़ुदी ठहर कि बहुत दिन गुज़र गए
कूचा-ए-जानाँ में जा निकले जो ग़िल्माँ भूल कर
रूह अरबाब-ए-मोहब्बत की लरज़ जाती है
ऐ मौत तुझ पे उम्र-ए-अबद का मदार है
जीने भी नहीं देते मरने भी नहीं देते
जौर को जौर भी अब क्या कहिए
जुस्तुजू-ए-नशात-ए-मुबहम क्या
इक मुअम्मा है समझने का न समझाने का
फिर किसी की याद ने तड़पा दिया
मुझ को मिरे नसीब ने रोज़-ए-अज़ल से क्या दिया
उस को भूले तो हुए हो 'फ़ानी'