रूह अरबाब-ए-मोहब्बत की लरज़ जाती है
तू पशेमान न हो अपनी जफ़ा याद न कर
Wasi Shah
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जौर को जौर भी अब क्या कहिए
आप से शरह-ए-आरज़ू तो करें
दिल का उजड़ना सहल सही बसना सहल नहीं ज़ालिम
नहीं ज़रूर कि मर जाएँ जाँ-निसार तेरे
तेरा निगाह-ए-शौक़ कोई राज़-दाँ न था
बहला न दिल न तीरगी-ए-शाम-ए-ग़म गई
क़िस्सा-ए-ज़ीस्त मुख़्तसर करते
दिल की काया ग़म ने वो पल्टी कि तुझ सा बन गया
कितनों को जिगर का ज़ख़्म सीते देखा
यूँ न क़ातिल को जब यक़ीं आया
मुझे बुला के यहाँ आप छुप गया कोई
आह अब तक तो बे-असर न हुई