बहला न दिल न तीरगी-ए-शाम-ए-ग़म गई
ये जानता तो आग लगाता न घर को मैं
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ऐ अजल ऐ जान-ए-'फ़ानी' तू ने ये क्या कर दिया
ना-उमीदी मौत से कहती है अपना काम कर
आते हैं अयादत को तो करते हैं नसीहत
न इंतिहा की ख़बर है न इंतिहा मालूम
जवानी को बचा सकते तो हैं हर दाग़ से वाइ'ज़
मुझ पे रखते हैं हश्र में इल्ज़ाम
यूँ न क़ातिल को जब यक़ीं आया
ऐ बे-ख़ुदी ठहर कि बहुत दिन गुज़र गए
रूह घबराई हुई फिरती है मेरी लाश पर
उस को भूले तो हुए हो 'फ़ानी'
बे-ख़ुदी पे था 'फ़ानी' कुछ न इख़्तियार अपना
इश्क़ इश्क़ हो शायद हुस्न में फ़ना हो कर