अपनी जन्नत मुझे दिखला न सका तू वाइज़
कूचा-ए-यार में चल देख ले जन्नत मेरी
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उस को भूले तो हुए हो 'फ़ानी'
इक फ़साना सुन गए इक कह गए
डरो न तुम कि न सुन ले कहीं ख़ुदा मेरी
ख़ुद मसीहा ख़ुद ही क़ातिल हैं तो वो भी क्या करें
ऐ बे-ख़ुदी ठहर कि बहुत दिन गुज़र गए
तिनकों से खेलते ही रहे आशियाँ में हम
जवानी को बचा सकते तो हैं हर दाग़ से वाइ'ज़
शिकवा-ए-हिज्र पे सर काट के फ़रमाते हैं
अब लब पे वो हंगामा-ए-फ़रियाद नहीं है
रूह अरबाब-ए-मोहब्बत की लरज़ जाती है
मौत आने तक न आए अब जो आए हो तो हाए
ऐ मौत तुझ पे उम्र-ए-अबद का मदार है