न इंतिहा की ख़बर है न इंतिहा मालूम
रहा ये वहम कि हम हैं सो ये भी क्या मालूम
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हर घड़ी इंक़लाब में गुज़री
जी ढूँढता है घर कोई दोनों जहाँ से दूर
मुझ तक उस महफ़िल में फिर जाम-ए-शराब आने को है
दुनिया-ए-हुस्न-ओ-इश्क़ में किस का ज़ुहूर था
हर नफ़स उम्र-ए-गुज़िश्ता की है मय्यत 'फ़ानी'
क़िस्सा-ए-ज़ीस्त मुख़्तसर करते
ज़माना बर-सर-ए-आज़ार था मगर 'फ़ानी'
मर के टूटा है कहीं सिलसिला-क़ैद-ए-हयात
अपनी ही निगाहों का ये नज़्ज़ारा कहाँ तक
दर्द-ए-दिल की उन्हें ख़बर क्या हो
ज़ीस्त का हासिल बनाया दिल जो गोया कुछ न था
बे-ख़ुदी पे था 'फ़ानी' कुछ न इख़्तियार अपना