दर्द-ए-दिल की उन्हें ख़बर क्या हो
जानता कौन है पराई चोट
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क्यूँ न नैरंग-ए-जुनूँ पर कोई क़ुर्बां हो जाए
होते हैं राज़-ए-इश्क़-ओ-मोहब्बत इसी से फ़ाश
मर के टूटा है कहीं सिलसिला-ए-क़ैद-ए-हयात
मर के टूटा है कहीं सिलसिला-क़ैद-ए-हयात
क़िस्सा-ए-ज़ीस्त मुख़्तसर करते
मुझ तक उस महफ़िल में फिर जाम-ए-शराब आने को है
सुने जाते न थे तुम से मिरे दिन-रात के शिकवे
दिल-ए-मरहूम को ख़ुदा बख़्शे
दुनिया मेरी बला जाने महँगी है या सस्ती है
मेरे लब पर कोई दुआ ही नहीं
हम मौत भी आए तो मसरूर नहीं होते
बे-ख़ुदी पे था 'फ़ानी' कुछ न इख़्तियार अपना