दिल-ए-मरहूम को ख़ुदा बख़्शे
एक ही ग़म-गुसार था न रहा
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बे-ख़ुदी पे था 'फ़ानी' कुछ न इख़्तियार अपना
दैर में या हरम में गुज़रेगी
या कहते थे कुछ कहते जब उस ने कहा कहिए
न इंतिहा की ख़बर है न इंतिहा मालूम
दुनिया मेरी बला जाने महँगी है या सस्ती है
ऐ मौत तुझ पे उम्र-ए-अबद का मदार है
किसी के एक इशारे में किस को क्या न मिला
हर साँस के साथ जा रहा हूँ
वा-ए-नादानी ये हसरत थी कि होता दर खुला
आह से या आह की तासीर से
डरो न तुम कि न सुन ले कहीं ख़ुदा मेरी
अब उन्हें अपनी अदाओं से हिजाब आता है