दिल-ए-आबाद का 'फ़ानी' कोई मफ़्हूम नहीं
हाँ मगर जिस में कोई हसरत-ए-बर्बाद रहे
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कुछ बस ही न था वर्ना ये इल्ज़ाम न लेते
मौत आने तक न आए अब जो आए हो तो हाए
आबादी भी देखी है वीराने भी देखे हैं
सूर-ओ-मंसूर-ओ-तूर अरे तौबा
जी ढूँढता है घर कोई दोनों जहाँ से दूर
ऐ बे-ख़ुदी ठहर कि बहुत दिन गुज़र गए
ले ए'तिबार-ए-वादा-ए-फ़र्दा नहीं रहा
अपनी ही निगाहों का ये नज़्ज़ारा कहाँ तक
जब पुर्सिश-ए-हाल वो फ़रमाते हैं जानिए क्या हो जाता है
फ़ानी दवा-ए-दर्द-ए-जिगर ज़हर तो नहीं
इब्तिदा-ए-इश्क़ है लुत्फ़-ए-शबाब आने को है
हर घड़ी इंक़लाब में गुज़री