मर के टूटा है कहीं सिलसिला-ए-क़ैद-ए-हयात
मगर इतना है कि ज़ंजीर बदल जाती है
Anwar Masood
Habib Jalib
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Allama Iqbal
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Parveen Shakir
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Wasi Shah
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ख़ल्क़ कहती है जिसे दिल तिरे दीवाने का
बहला न दिल न तीरगी-ए-शाम-ए-ग़म गई
मोहताज-ए-अजल क्यूँ है ख़ुद अपनी क़ज़ा हो जा
डरो न तुम कि न सुन ले कहीं ख़ुदा मेरी
क़तरा दरिया-ए-आश्नाई है
किसी के एक इशारे में किस को क्या न मिला
जुस्तुजू-ए-नशात-ए-मुबहम क्या
या तिरे मुहताज हैं ऐ ख़ून-ए-दिल
बे-ख़ुदी पे था 'फ़ानी' कुछ न इख़्तियार अपना
यारब नवा-ए-दिल से ये कान आश्ना से हैं
मौत का इंतिज़ार बाक़ी है
फ़ानी दवा-ए-दर्द-ए-जिगर ज़हर तो नहीं