सुने जाते न थे तुम से मिरे दिन-रात के शिकवे
कफ़न सरकाओ मेरी बे-ज़बानी देखते जाओ
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मेरे जुनूँ को ज़ुल्फ़ के साए से दूर रख
किसी को क्या मिरे सूद ओ ज़ियाँ से
कुछ कम तो हुआ रंज-ए-फ़रावान-ए-तमन्ना
आते हैं अयादत को तो करते हैं नसीहत
उस को भूले तो हुए हो 'फ़ानी'
बिजलियाँ टूट पड़ीं जब वो मुक़ाबिल से उठा
तेरा निगाह-ए-शौक़ कोई राज़-दाँ न था
अब ये भी नहीं कि नाम तो लेते हैं
क़तरा दरिया-ए-आश्नाई है
ऐ अजल ऐ जान-ए-'फ़ानी' तू ने ये क्या कर दिया
दिल की काया ग़म ने वो पल्टी कि तुझ सा बन गया
दिल-ए-मरहूम को ख़ुदा बख़्शे